अलंकार क्या है?
हर व्यक्ति के मन में विचार उठते हैं. हर व्यक्ति बोलचाल, बातचीत में विचार व्यक्त भी करता है किन्तु साहित्यकार उसी बात को व्यवस्थित तरीके से, उपयुक्त शब्दों का प्रयोग कर, सार्थक शब्दों के माध्यम से कहता है तो वह अधिक प्रभाव छोड़ती है. आप संसद की बहसें और दूरदर्शन के कार्यक्रम नित्य सुनते तथा अख़बार नित्य देखते हैं. जहाँ भाषा विषय के अनुरूप न हो वहां वह असरहीन तो होती ही है, वक्ता या लेखक को उपहास का पात्र भी बनाती है. भाषा के प्रभाव में वृद्धि कर बात को सहज ग्राह्य, रोचक तथा सुरुचिपूर्ण बनाने की कला ही अलंकार का उपयोग करना है.आभूषणविहीन नववधु की तरह अलंकारविहीन कविता अपना प्रभाव खो देती है. जिस तरह नववधु की चर्चा होते ही विविध वस्त्राभूषणों से सुसज्जित नवयौवना का चित्र साकार होता है, उसी तरह काव्य रचना की चर्चा होते ही रस, छंद और अलंकार से सुशोभित रचना का बिम्ब मानस पटल पर उभरता है. संस्कृत साहित्य में काव्य की आत्मा रीति, वक्रोक्ति, ध्वनि, अनुमिति, औचित्य तथा रस इंगित किये जाने पर भी अलंकार की महत्ता सभी आचार्यों ने मुक्त कंठ से स्वीकारी है. अलंकार को पृथक सम्प्रदाय न कहे जाने का कारण संभवत: यह है कि कोई भी संप्रदाय अलंकार के बिना हो ही नहीं सकता है.इसलिए अग्नि पुराणकार कहता है: 'अलंकार रहित विधवैव सरस्वती'
चंद्रालोक के अनुसार:
न कान्तमपि निर्भूषं विभाति वनिता मुखं
अंगीकरोति य: काव्यं शब्दार्थावनलंकृति
असौ न मन्यते कस्माद्नुष्णमनलं कृती
काव्य शोभाकरां धर्मानलंकारां प्रचक्षते
आचार्य वामन ने अलंकार को काव्य का शोभावर्धक तत्व तथा रीति को काव्य की आत्मा कहा-
काव्य शोभा: कर्त्तारौ धर्मा: गुणा:
तदतिशय हेत वस्त्वलंकारा:
अलंकार के प्रथम प्रवर्तक आचार्य भामह ने अलंकार का मूल वक्रोक्ति को माना-
सैषा सर्वत्र वक्रोक्तिनयाsर्थो विभाव्यते
यत्नोस्यां कविना कार्य कोलंकारोsनयविना
वामन ने 'काव्यालंकार सूत्रवृत्ति' में रीति को, कुंतक ने 'वक्रोक्ति जीवितं' में वक्रोक्ति को, आनंदवर्धनाचार्यके अनुसार ध्वनि, क्षेमेन्द्र व् जयमंगलाचार्य के अनुसार औचित्य तथा विश्वनाथ के मत में रस काव्य के अनिवार्य तत्व हैं. गोस्वामी तुलसीदास रामचरित मानस में लिखते हैं-
आखर अरथ अलंकृति नाना। छंद प्रबंध अनेक बिधाना।।
भवभेद रसभेद अपारा। कवित दोष-गुन बिबिध प्रकारा।।
अंगरेजी के प्रसिद्ध लेखक डॉ. जॉनसन के अनुसार: ' पोएट्री इज द आर्ट ऑफ़ यूनाइटिंग प्लेजर विथ ट्रुथ बाय कालिंग इमेजिनेशन टु द हेल्प ऑफ़ रीजन.
सत्य में आनंद का सम्मिश्रण अलंकार के माध्यम से ही होता है.
रामचन्द्र शुक्ल के मत में: 'अलंकार काव्य की आत्मा है.'
कविवर सुमित्रानंदन पंत के अनुसार- 'अलंकार केवल वाणी की लिए नहीं हैं. वे भाव की अभिव्यक्ति विशेष द्वार हैं.
अलंकार : प्रयोजन और अर्थ
नवयौवन पर सोहता, ज्यों नूतन श्रृंगार
काव्य कामिनी पर सजे, अलंकार भंडार
मानव मन की अनुभूतियों को सम्यक शब्दों तथा लय के माध्यम से प्रभावी रूप से प्रस्तुत करने की कला कविताई है. कहने के जिस तरीके से कविता में व्यक्त भावों का सौंदर्य और प्रभाव बढ़ता है उसे अलंकार कहते हैं.
हम स्नान तथा सौंदर्य प्रसाधनों के बिना भी रह सकते हैं पर स्नान से ताजगी व स्फूर्ति तथा सौंदर्य प्रसाधनों से सुरुचि की प्रतीति होती है, आकर्षण बढ़ता है. इसी तरह बिना अलंकार के भी कविता हो सकती है पर अलंकार का प्रयोग होने से कविता का आकर्षण तथा प्रभाव बढ़ता है.
एक बात और जिस तरह अत्यधिक श्रृंगार अरुचि उत्पन्न करता है वैसे ही अत्यधिक अलंकार भी काव्य के प्रभाव को न्यून करता है.
आशय यह की कवि को यह स्मरण रखना चाहिए कि रस, छंद , अलंकार, बिम्ब, प्रतीक आदि के प्रयोग का उद्देश्य कविता का प्रभाव बढ़ाना है, न कि कथ्य से अधिक अपना प्रभाव स्थापित करना. कविता साध्य है शेष तत्व साधन।
परिभाषा:
अधरों की शोभा बढ़ा, सार्थक होता हासअलंकार से काव्य की, सुंदरता हो ख़ास
सामान्यत: कथन के जिन प्रकारों से काव्य की सौंदर्य वृद्धि होती है उन्हें अलंकार कहते हैं. अलंकार का शाब्दिक अर्थ आभूषण है.
काव्य को 'शब्दार्थौ सहितौ' (अर्थ युक्त शब्द) तथा 'विदग्ध भणिति' (रमणीय कथन) मानने की संस्कृत काव्य-परंपरा हिंदी ने विरासत में पायी है. यह परंपरा रीति, नाक्रोक्ति, ध्वनि या रस को काव्यात्मा मानती रही किन्तु अलंकार को 'अलं करोतीति अलंकार:' कहकर शोभावर्धक तत्व के रूप में अलंकारों के प्रकार खोजने तक सीमित रह गयी. भामह ने अलंकार का मूल वक्रोक्ति को मानते हुए वक्रोक्ति के विविध रूपों में अलंकार के भेद या प्रकार खोजे.
सैषा सर्वत्र वक्रोक्तिरनयार्थौ विभाव्यते
यत्नोsस्यां कविना कार्य: को लंकारोsनयाsविना -काव्यालंकार २, ८५
वक्रोक्ति के भेद अलंकार मान्य किये गए तो स्वभावोक्ति को भी अलंकार स्वीकारा गया. वास्तव में अलंकार वचन-भंगिमा है, चमत्कार पूर्ण उक्ति (कथन) है. काव्य को जीवन और सत्य प्रकाशित करनेवाली विधा मानने पर अलंकार को उसकी दीप्ति मानना होगा. वस्तुत: सत्य या तथ्य काव्य की वस्तु, विचार या भाव है किन्तु अमूर्त भाव को मूर्तित अथवा रूपायित करनेवाला कारक अलंकार ही है. अत: अलंकार की परिभाषा निम्नवत होगी:
किसी वस्तु, सत्य या जीवन को शब्दों में अभिव्यक्त कर पाठक-श्रोता को चमत्कृत करने की कला व् विज्ञान अलंकार है. पाश्चात्य काव्य मीमांसा में वर्णित बिंबवाद और प्रतीकवाद भी अलनकर के ही अंगोपांग हैं. अलंकार का यह वृहद स्वरूप भाव तथा रस के प्रभाव का विस्तारक है तथा वस्तु, विचार या जीवन की प्रत्यक्ष अनुभूति करने में सक्षम है.
नवयौवन पर सोहता, ज्यों नूतन श्रृंगार
काव्य कामिनी पर सजे, अलंकार साकार
अधरों की शोभा बढ़ा, सार्थक होता हास
अलंकार से काव्य की, सुंदरता हो ख़ास
प्रकार:
अलंकार के २ प्रकार हैं-१. शब्दालंकार:
जब शब्द में चमत्कार से काव्य-प्रभाव में वृद्धि हो.
उदाहरण:
१. अजर अमर अक्षर अगम, अविनाशी परब्रम्ह
यहां 'अ' की आवृत्तियों से कथन में चमत्कार उत्पन्न हो रहा है. अत: वृत्यानुप्रास अलंकार है
२. गये दवाखाना मिला, घर से यह निर्देश
भूल दवा खाना गये, खा लें था आदेश
यहाँ 'दवाखाना' शब्द की भिन्नार्थों में दो आवृत्तियाँ होने से यमक अलंकार है.
३. नेता से नेता करे, नूराकुश्ती नित्य
'नेता' शब्द की समानार्थ में दो आवृत्ति होने से यहाँ लाटानुप्रास अलंकार है.
४. चन्द्र गगन में बाँह में मोहक छवि बिखेर
यहाँ 'चन्द्र' की एक आवृत्ति अनेक अर्थों की प्रतीति कराती है. अत: यहाँ श्लेष अलंकार है.
उदाहरण:
१. अजर अमर अक्षर अगम, अविनाशी परब्रम्ह
यहां 'अ' की आवृत्तियों से कथन में चमत्कार उत्पन्न हो रहा है. अत: वृत्यानुप्रास अलंकार है
२. गये दवाखाना मिला, घर से यह निर्देश
भूल दवा खाना गये, खा लें था आदेश
यहाँ 'दवाखाना' शब्द की भिन्नार्थों में दो आवृत्तियाँ होने से यमक अलंकार है.
३. नेता से नेता करे, नूराकुश्ती नित्य
'नेता' शब्द की समानार्थ में दो आवृत्ति होने से यहाँ लाटानुप्रास अलंकार है.
४. चन्द्र गगन में बाँह में मोहक छवि बिखेर
यहाँ 'चन्द्र' की एक आवृत्ति अनेक अर्थों की प्रतीति कराती है. अत: यहाँ श्लेष अलंकार है.
न शब्दालंकारों का उपविभाज
१. आवृत्तिमूलक अलंकार, २. स्वराघात मूलक अलंकार तथा ३. चित्रमूलक अलंकार में किया गया है.
शब्दालंकार में चमत्कार उत्पन्न करनेवाले शब्द के स्थान पर समानार्थी शब्द रख दिया जाए तो अर्थ में परिवर्तन न होने पर भी अलंकार नहीं रहता क्योंकि शब्द बदलने पर समान अर्थ होते हुए पर भी चमत्कार नष्ट हो जाता है.
शब्दालंकार में चमत्कार उत्पन्न करनेवाले शब्द के स्थान पर समानार्थी शब्द रख दिया जाए तो अर्थ में परिवर्तन न होने पर भी अलंकार नहीं रहता क्योंकि शब्द बदलने पर समान अर्थ होते हुए पर भी चमत्कार नष्ट हो जाता है.
२. अर्थालंकार:
जब अर्थ में चमत्कार काव्य-प्रभाव में वृद्धि करे.
उदाहरण:
१. नेता-अफसर राहु-केतु सम ग्रहण देश को आज
यहाँ नेताओं तथा अधिकारियों को राहु-केतु के सामान बताने के कारण उपमा अलंकार है.
२. नयन कमल छवि मन बसी
यहाँ नयन को कमल बताया गया है, अत: रूपक अलंकार है.
अर्थालंकार में चमत्कार उत्पन्न करनेवाले शब्द के स्थान पर समानार्थी शब्द रख दिया जाए तो अर्थ नहीं बदलता तथा अलंकार यथावत बना रहता है.
अर्थालंकार के २ उपभेद हैं: १. गुणसाम्य के आधार पर, २. क्रिया साम्य के आधार पर.
हम नित्य सोकर उठने के पश्चात स्नानादि कर स्वच्छ वस्त्र पहनकर समाज में जाते हैं तो परिचित सस्नेह मिलते हैं. यासी हम मैले-कुचैले वस्त्रों में जैसे ही चले जाएँ तो न हमें अच्छा लगेगा, न परिचितों को. अपने आपको सुसज्जित कर प्रस्तुत करना ही अलंकृत होना या अलंकार का वरण करना है.
कविता की अंतर्वस्तु को सुसज्जित कर ही अलंकार का प्रयोग करना है. भवन निर्माण के पश्चात वास्तुविद उचित स्थान पर उचित आकर के द्वार, वातायन, मन को अच्छे लगनेवाले रंगों, उपयोगी उपकरणों आदि का प्रयोग कर भावब को अलंकृत करता है. कवि के उपकरण शब्द तथा अर्थ हैं. विचार की अभिव्यक्ति में शब्द का प्रयोग पहले होता है तब पाठक-श्रोता उसे पढ़-सुनकर उसका अर्थ ग्रहण करता है. इसलिए शब्दालंकार को जानना तथा उसका समुचित प्रयोग करना आवश्यक है.
शब्दालंकार के ३ वर्ग हैं: १. आवृत्तिमूलक, २. स्वराघातमूलक तथा ३. चित्रमूलक।
१. वर्णावृत्तिमूलक: वे अलंकार जिनमें वर्णों (अक्षरों) की आवृत्ति (दुहराव) होता है. जैसे अनुप्रास अलंकार.
२. शब्दावृत्ति मूलक: वे अलंकार जिनमें शब्दों की आवृत्ति होती है. जैसे यमक अलंकार।
अनुप्रास अलंकार: अनुप्रास अलंकार में एक या अधिक वर्णों की आवृत्ति होती है.
उदाहरण:
१. भगवान भारत भारती का भव्य भूषित भवन हो (भ की आवृत्ति)
२. जय जगजननी-जगतजनक, जय जनगण जय देश (ज की आवृत्ति)
अनुप्रास अलंकार के ५ भेद हैं: १. छेकानुप्रास, २. वृत्यनुप्रास, ३. श्रुत्यनुप्रास, ४. अन्त्यानुप्रास, ५. लाटानुप्रास।
'सलिल' छेक-अनुप्रास से, बढ़ता काव्य-प्रभाव
जब एक या एकाधिक वर्णों (अक्षरों) की एक आवृत्ति हो तो वहाँ छेकानुप्रास होता है।
उदाहरण:
१. अनिल अनल भू नभ सलिल, पंचतत्व जग जान।
स्नेह समादर वृद्धि वर, काव्य कलश रस-खान ।।
यहाँ अ, ज, स, व तथा क की एक आवृत्ति दृष्टव्य है।
२. सेवा समय दैव वन दीन्हा। मोर मनोरथ सफल न कीन्हा।।
३. पत्थर पिघले किन्तु तुम्हा तब भी ह्रदय हिलेगा क्या?
४. चेत कर चलना कुमारग में कदम धरना नहीं।
५. निर्मल नभ में देव दिवाकर अग्नि चक्र से फिरते हैं।
६. एक को मारे दो मर जावे तीजा गिरे कुलाटी खाय।
७. ज़ख्म जहरीले को चीरा चाहिए।
काटने को काँच हीरा चाहिए।।
८. मिट्टी का घड़ा
बूँद-बूँद रिसता
लो खाली हुआ।
९. राम गया रावण गया
मरना सच अनिवार्य है
मरने का भय क्यों भला?
१०. मन में मौन
रहे सदा, देखता
कहिए कौन?
टीप: वर्ण की आवृत्ति शब्दारंभ में ही देखी जाती है. शब्द के मध्य या अंत में आवृत्ति नहीं देखी जाती।
उक्त अलंकार का प्रयोग कर अपनी काव्य पंक्तियाँ टिप्पणी में लगायें।
अपने अंचल में प्रचलित भाषा रूप की काव्य पंक्तियाँ जिनमें अलंकार का प्रयोग हो प्रस्तुत करें। विविध छंदों के उदाहरण जिनमें उक्त अलंकार हो, प्रस्तुत करेंआप सभी का धन्यवाद। अलंकारों का प्रयोग कर अपनी काव्य पंक्तियाँ टिप्पणी में लगाएं। अपने अंचल में प्रचलित भाषा रूप की पकंतियाँ जिनमें अलंकार का प्रयोग हो प्रस्तुत करें।
करे श्रुत्यानुप्रास में, युग-युग से कवि लोग
वर्णों का उच्चारण विविध स्थानों से किया जाता है. इसी आधार पर वर्णों के निम्न अनुसार वर्ग बनाये गये हैं.
उच्चारण स्थान अक्षर
कंठ अ आ क ख ग घ ङ् ह
तालु इ ई च छ ज झ ञ् य श
मूर्द्धा ऋ ट ठ ड ढ ण र ष
दंत लृ त थ द ध न ल स
ओष्ठ उ ऊ प फ ब भ म
कंठ-तालु ए ऐ
कंठ-ओष्ठ ओ औ
दंत ओष्ठ व
नासिका भी ङ् ञ् ण न म
जब श्रुति अर्थात एक स्थान से उच्चरित कई वर्णों का प्रयोग हो तो वहां श्रुत्यनुप्रास अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. अक्सर आया कपोत गौरैया संग हुलस
यहाँ अ क आ क ग ग ह कंठाक्षरों का प्रयोग किया गया है.
२. इधर ईद चन्दा-छटा झट जग दे उजियार
यहाँ इ ई च छ झ ज ज य तालव्य अक्षरों का प्रयोग किया गया है.
३. ठोंके टिमकी डमरू ढोल विषम जोधा रण बीच चला
यहाँ ठ, ट, ड, ढ, ष, ण मूर्धाक्षरों का प्रयोग किया गया है.
४. तुलसीदास सीदत निसि-दिन देखत तुम्हारि निठुराई
यहाँ त ल स द स स द त न स द न द त त न दन्ताक्षरों का प्रयोग किया गया है.
५. उधर ऊपर पग फैला बैठी भामिनी थक-चूर हो
यहाँ उ ऊ प फ ब भ म ओष्ठाक्षरों का प्रयोग किया गया है.
६. ए ऐनक नहीं तो दो आँख धुंधला देखतीं
यहाँ ए, ऐ कंठव्य-तालव्य अक्षरों का प्रयोग किया गया है.
७. ओजस्वी औलाद न औसर ओट देखती
यहाँ ओ औ औ ओ कंठ-ओष्ठ अक्षरों का प्रयोग किया गया है.
८. वनराज विपुल प्रहार कर वाराह-वध हित व्यथित था
यहाँ व दंत-ओष्टाक्षर का प्रयोग किया गया है.
९. वाङ्गमय भी वाञ्छित, रणनाद ही मत तुम करो
यहाँ ङ् ञ् ण न म नासिकाक्षरों का प्रयोग किया गया है.
छंद के अंतिम चरण में स्वर या व्यंजन की समता को अन्त्यनुप्रास कहा जाता है. इसके कई प्रकार हैं. यथा सर्वान्त्य, समान्तय, विषमान्त्य, समान्त्य-विषमान्त्य तथा सम विषमान्त्य।
अ. सर्वान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार:
सभी चरणों में अंतिम वर्ण समान हो तो सर्वान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है. सामान्यत सवैया में यह अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. धूरि भरे अति सोभित स्यामजू तैसि बनी सिर सुंदर चोटी
खेलत खात फिरैं अँगना पग पैजनिया कटि पीरी कछौटी
वा छवि को रसखान विलोकत वारत काम कलानिधि कोटी
काग के भाग बड़े सजनी हरि हाथ सों लै गयो माखन रोटी (मत्तगयन्द सवैया, ७ भगण २ गुरु, २३ वर्ण)
२. खेलत फाग सुहाग भरी अनुरागहिं कौं झरी कै
मारत कुंकुम केसरि के पिचकारिन मैं रंग को भरि कै
गेरत लाल गुलाल लली मन मोहनि मौज मिटा करि कै
जाट चली रसखानि अली मदमत्त मनौ-मन कों हरि कै (मदिरा सवैया, ७ भगण १ गुरु, २२ वर्ण)
आ. समान्त्य अंत्यानुप्रास अलंकार
सम चरणों अर्थात दूसरे, चौथे छठवें आदि चरणों में अंतिम वर्णों की समता होने पर समान्त्य अंत्यानुप्रास अलंकार होता है. दोहा में इसकी उपस्थिति अनिवार्य होती है.
उदाहरण:
१. जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह प्रवेश त्यौहार
हर अवसर पर दें 'सलिल', पुस्तक ही उपहार
२. मेरी भव-बाधा हरो, राधा नागरि सोइ
जा तन की झांई परै, श्याम हरित दुति होइ
इ. विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार
विषम अर्थात प्रथम, तृतीय, पंचम आदि चरणों के अंत में वर्णों की समता विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार दर्शाती है. यह अलंकार सोरठा, मुक्तक आदि में मिलता है.
उदाहरण:
१. लक्ष्य चूम ले पैर, एक सीध में जो बढ़े कोई न करता बैर, बाँस अगर हो हाथ में
२. आसमान कर रहा है इन्तिज़ार
तुम उड़ो तो हाथ थाम ले बहार
हौसलों के साथ रख चलो कदम
मंजिलों को जीत लो, मिले निखार
ई. समान्त्य-विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार
किसी छंद की एक ही पंक्ति के सम तथा विषम दोनों चरणों में अलग-अलग समानता हो तो समान्त्य-विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है. यह अलंकार किसी-किसी दोहे, सोरठे, मुक्तक तथा चौपाई में हो सकता है.
उदाहरण :
१. कुंद इंदु सम देह, उमारमण करुणा अयन
जाहि दीन पर नेह, करहु कृपा मर्दन मयन
इस सोरठे में विषम चरणों के अंत में देह-नेह तथा सम चरणों के अंत में अयन-मयन में भिन्न-भिन्न अंत्यानुप्रास हैं.
२. कहीं मूसलाधार है, कहीं न्यून बरसात
दस दिश हाहाकार है, गहराती है रात
इस दोहे में विषम चरणों के अंत में 'मूसलाधार है' व 'हाहाकार है' में तथा सम चरणों के अंत में 'बरसात' व 'रात' में भिन्न-भिन्न अन्त्यानुप्रास है.
३. आँख मिलाकर आँख झुकाते आँख झुकाकर आँख उठाते आँख मारकर घायल करते
आँख दिखाकर मौन कराते
इस मुक्तक में 'मिलाकर', 'झुकाकर', 'मारकर' व दिखाकर' में तथा 'झुकाते', उठाते', 'करते' व 'कराते' में भिन्न-भिन्न अन्त्यानुप्रास है.
उ. सम विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार
जब छंद के हर दो-दो चरणों के अन्त्यानुप्रास में समानता तथा पंक्तियों के अन्त्यनुप्रास में भिन्नता हो तो वहां सम विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. जय गिरिजापति दीनदयाला। सदा करात सन्ततं प्रतिपाला ।।
भाल चद्रमा सोहत नीके। कानन कुण्डल नाग फनीके ।।
यहाँ 'दयाला' व 'प्रतिपाला' तथा 'नीके' व 'फनीके' में पंक्तिवार समानता है पर विविध पंक्तियों में भिन्नता है.
अन्त्यानुप्रास के विविध प्रकारों का प्रयोग चलचित्र 'उत्सव' के एक सरस गीत में दृष्टव्य है:
मन क्यों बहका री बहका, आधी रात को
बेला महका री महका, आधी रात को
किस ने बन्सी बजाई, आधी रात को
जिस ने पलकी चुराई, आधी रात को
झांझर झमके सुन झमके, आधी रात को
उसको टोको ना रोको, रोको ना टोको, टोको ना रोको, आधी रात को लाज लागे री लागे, आधी रात को देना सिंदूर क्यों सोऊँ आधी रात को
बात कहते बने क्या, आधी रात को
आँख खोलेगी बात, आधी रात को
हम ने पी चाँदनी, आधी रात को
चाँद आँखों में आया, आधी रात को
रात गुनती रहेगी, आधी बात को
आधी बातों की पीर, आधी रात को
बात पूरी हो कैसे, आधी रात को
रात होती शुरू हैं, आधी रात को
गीतकार : वसंत देव, गायक : आशा भोसले - लता मंगेशकर, संगीतकार : लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, चित्रपट : उत्सव (१९८४)
इस सरस गीत और उस पर हुआ जीवंत अभिनय अविस्मरणीय है.इस गीत में आनुप्रासिक छटा देखते ही बनती है. झांझर झमके सुन झमके, मन क्यों बहका री बहका, बेला महका री महका, रात गुनती रहेगी आदि में छेकानुप्रास मन मोहता है. इस गीत में अन्त्यानुप्रास का प्रयोग हर पंक्ति में हुआ है.
अन्वय लाट अनुप्रास में, रहे भिन्न सविवेक
जब कोई शब्द दो या अधिक बार एक ही अर्थ में प्रयुक्त हो किन्तु अन्वय भिन्न हो तो वहाँ लाटानुप्रास अलंकार होता है. भिन्न अन्वय से आशय भिन्न शब्द के साथ अथवा समान शब्द के साथ भिन्न प्रकार के प्रयोग से है.
किसी काव्य पद में समान शब्द एकाधिक बार प्रयुक्त हो किन्तु अन्वय करने से भिन्नार्थ की प्रतीति हो तो लाटानुप्रास अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. राम ह्रदय, जाके नहीं विपति, सुमंगल ताहि
राम ह्रदय जाके नहीं, विपति सुमंगल ताहि
जिसके ह्रदय में राम हैं, उसे विपत्ति नहीं होती, सदा शुभ होता है.
जिसके ह्रदय में राम नहीं हैं, उसके लिए शुभ भी विपत्ति बन जाता है.
अन्वय अल्पविराम चिन्ह से इंगित किया गया है.
२. पूत सपूत तो क्यों धन संचै?
पूत कपूत तो क्यों धन संचै??
यहाँ पूत, तो, क्यों, धन तथा संचै शब्दों की एकाधिक आवृत्ति पहली बार सपूत के साथ है तो दूसरी बार कपूत के साथ.
३. सलिल प्रवाहित हो विमल, सलिल निनादित छंद
सलिल पूर्वज चाहते, सलिल तृप्ति आनंद
यहाँ सलिल शब्द का प्रयोग चार भिन्न अन्वयों में द्रष्टव्य है.
४. मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अवतारी थी
यहाँ पहले दोनों तेज शब्दों का अन्वय मिला क्रिया के साथ है किन्तु पहला तेज करण करक में है जबकि दूसरा तेज कर्ता कारक में है. तीसरे तेज का अन्वय अधिकारी शब्द से है.
५. उत्त्तरा के धन रहो तुम उत्त्तरा के पास ही
उत्तरा शब्द का अर्थ दोनों बार समान होने पर भी उसका अन्वय धन और पास के साथ हुआ है.
६. पहनो कान्त! तुम्हीं यह मेरी जयमाला सी वरमाला
यहाँ माला शब्द दो बार समान अर्थ में है,किन्तु अन्वय जय तथा वार के साथ भिन्नार्थ में हुआ है.
७. आदमी हूँ, आदमी से प्यार करता हूँ
चित्रपटीय गीत की इस पंक्ति में आदमी शब्द का दो बार समानार्थ में प्रयोग हुआ है किन्तु अन्वय हूँ तथा से के साथ होने से भिन्नार्थ की प्रतीति कराता है.
८. अदरक में बंदर इधर, ढूँढ रहे हैं स्वाद
स्वाद-स्वाद में हो रहा, उधर मुल्क बर्बाद
अभियंता देवकीनन्दन 'शांत' की दोहा ग़ज़ल के इस शे'र में स्वाद का प्रयोग भिन्न अन्वय में हुआ है.
९. सब का सब से हो भला
सब सदैव निर्भय रहें
सब का मन शतदल खिले.
मेरे इस जनक छंद (तेरह मात्रक त्रिपदी) में सब का ४ बार प्रयोग समान अर्थ तथा भिन्न अन्वय में हुआ है.
टिप्पणी: तुझ पे कुर्बान मेरी जान, मेरी जान!
चित्रपटीय गीत के इस अंश में मेरी जान शब्द युग्म का दो बार प्रयोग हुआ है किन्तु भिन्नार्थ में होने पर भी अन्वय भिन्न न होने के कारण यहाँ लाटानुप्रास अलंकार नहीं है. 'मेरी जान' के दो अर्थ मेरे प्राण, तथा मेरी प्रेमिका होने से यहाँ यमक अलंकार है.
वैणसगाई जानिए, काव्य शास्त्र की रीत
जब काव्य पंक्ति का पहला अक्षर अंतिम शब्द में कहीं भी उपस्थित हो वैणसगाई अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. माता भूमि मान
पूजै राण प्रतापसी
पहली पंक्ति में 'म' तथा दूसरी पंक्ति में प' की आवृत्ति दृष्टव्य है,
२. हरि! तुम बिन निस्सार है,
दुनिया दाहक दीन.
दया करो दीदार दो,
मीरा जल बिन मीन. - संजीव
३. हम तेरे साये की खातिर धूप में जलते रहे
हम खड़े राहों में अपने हाथ ही मलते रहे -देवकीनन्दन 'शांत'
४. नीरव प्रशांति का मौन बना बना - जयशंकर प्रसाद
५. सब सुर हों सजीव साकार …
.... तान-तान का हो विस्तार -मैथिली शरण गुप्त
६. पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल -निराला
७. हमने देखा सदन बने हैं
लोगों का अपनापन लेकर - बालकृष्ण शर्मा नवीन
८. जो हृदय की बात है वह आँख से जब बरस जाए - डॉ. रामकुमार वर्मा
९. चौकस खेतिहरों ने पाये ऋद्धि-सिद्धि के आकुल चुंबन -नागार्जुन
१०. तब इसी गतिशील सिंधु-यात्री हेतु -सुमित्रा कुमारी सिन्हा
शब्दालंकृत काव्य से, हो अधरों पर हास
जब शब्दों के बार-बार दुहराव से काव्य में चमत्कार उत्पन्न हो तब शब्दावृत्तिमूलक अलंकार होता है. प्रमुख शब्दावृत्ति मूलक अलंकार [ अ] पुनरुक्तप्रकाश, [आ] पुनरुक्तवदाभास, [इ] वीप्सा तथा [ई] यमक हैं. चित्र काव्य अलंकार में शब्दावृत्ति जन्य चमत्कार के साथ-साथ चित्र को देखने से उत्पन्न प्रभाव भी चमत्कार उत्पन्न करता है, इसलिए मूलत: शब्दावृत्तिमूलक होते हुए भी वह विशिष्ट हो जाता है.
पुनरुक्तप्रकाश अलंकार
शब्दों की आवृत्ति हो, निश्चयता के संग
तब पुनरुक्तप्रकाश का, 'सलिल' जम सके रंग
पुनरुक्तप्रकाश अलंकार की विशेषता शब्द की समान अर्थ में एकाधिक आवृत्ति के साथ- की मुखर-प्रबल अभिव्यक्ति है. इसमें शब्द के दोहराव के साथ निश्चयात्मकता का होना अनिवार्य है.
उदाहरण :
१. मधुमास में दास जू बीस बसे, मनमोहन आइहैं, आइहैं, आइहैं
उजरे इन भौननि को सजनी, सुख पुंजन छाइहैं, छाइहैं, छाइहैं
अब तेरी सौं ऐ री! न संक एकंक, विथा सब जाइहैं, जाइहैं, जाइहैं
घनश्याम प्रभा लखि सखियाँ, अँखियाँ सुख पाइहैं, पाइहैं, पाइहैं
यहाँ शब्दों की समान अर्थ में आवृत्ति के साथ कथन की निश्चयात्मकता विशिष्ट है.
२. मधुर-मधुर मेरे दीपक जल
यहाँ 'जल' क्रिया का क्रिया-विशेषण 'मधुर' दो बार आकर क्रिया पर बल देता है.
३. गाँव-गाँव अस होइ अनंदा
४. आतंकवाद को कुचलेंगे, मिलकर कुचलेंगे, सच मानो
हम गद्दारों को पकड़ेंगे, मिलकर पकड़ेंगे, प्रण ठानो
रिश्वतखोरों को जकड़ेंगे, मिलकर जकड़ेंगे, तय जानो
भारत माँ की जय बोलेंगे, जय बोलेंगे, मुट्ठी तानो
५. जय एकलिंग, जय एकलिंग, जय एकलिंग कह टूट पड़े
मानों शिवगण शिव- आज्ञा पा असुरों के दल पर टूट पड़े
६. पानी-पानी कह पौधा-पौधा मुरझा-मुरझा रोता है
बरसो-बरसो मेघा-मेघा धरती का धीरज खोता है
७. मयूंरी मधुबन-मधुबन नाच
८. घुमड़ रहे घन काले-काले, ठंडी-ठंडी चली
९. नारी के प्राणों में ममता बहती रहती, बहती रहती
१०. विरह का जलजात जीवन, विरह का जलजात
११. हम डूब रहे दुःख-सागर में,
अब बाँह प्रभो!धरिए, धरिए!
१२. गुरुदेव जाता है समय रक्षा करो,
१३. बनि बनि बनि बनिता चली, गनि गनि गनि डग देत
१४. आया आया आया, भाँति आया
१५. फिर सूनी-सूनी साँझ हुई
अलंकार है यमक यह, कहते सुधि सविवेक
काव्य पंक्तियों में एक शब्द की एकाधिक आवृत्ति अलग-अलग अर्थों में होने पर यमक अलंकार होता है. यमक अलंकार के अनेक प्रकार होते हैं.
अ. दुहराये गये शब्द के पूर्ण- आधार पर यमक अलंकार के ३ प्रकार १. अभंगपद, २. सभंगपद ३. खंडपद हैं.
आ. दुहराये गये शब्द या शब्दांश के सार्थक या निरर्थक होने के आधार पर यमक अलंकार के ४ भेद १.सार्थक-सार्थक, २. सार्थक-निरर्थक, ३.निरर्थक-सार्थक तथा ४.निरर्थक-निरर्थक होते हैं.
इ. दुहराये गये शब्दों की संख्या अर्थ के आधार पर भी वर्गीकरण किया जा सकता है.
उदाहरण :
१. झलके पद बनजात से, झलके पद बनजात
अहह दई जलजात से, नैननि सें जल जात -राम सहाय
प्रथम पंक्ति में 'झलके' के दो अर्थ 'दिखना' और 'छाला' तथा 'बनजात' के दो अर्थ 'पुष्प' तथा 'वन गमन' हैं. यहाँ अभंगपद यमक अलंकार है.
द्वितीय पंक्ति में 'जलजात' के दो अर्थ 'कमल-पुष्प' और 'अश्रु- पात' हैं. यहाँ सभंग यमक अलंकार है.
२. कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय
या खाये बौराय नर, वा पाये बौराय
कनक = धतूरा, सोना -अभंगपद यमक
३. या मुरली मुरलीधर की, अधरान धरी अधरा न धरैहौं
मुरली = बाँसुरी, मुरलीधर = कृष्ण, मुरली की आवृत्ति -खंडपद यमक
अधरान = पर, अधरा न = अधर में नहीं - सभंगपद यमक
४. मूरति मधुर मनोहर देखी
भयेउ विदेह विदेह विसेखी -अभंगपद यमक, तुलसीदास
विदेह = राजा जनक, देह की सुधि भूला हुआ.
५. कुमोदिनी मानस-मोदिनी कहीं
यहाँ 'मोदिनी' का यमक है. पहला मोदिनी 'कुमोदिनी' शब्द का अंश है, दूसरा स्वतंत्र शब्द (अर्थ प्रसन्नता देने वाली) है.
६. विदारता था तरु कोविदार को
यमक हेतु प्रयुक्त 'विदार' शब्दांश आप में अर्थहीन है किन्तु पहले 'विदारता' तथा बाद में 'कोविदार' प्रयुक्त हुआ है.
७. आयो सखी! सावन, विरह सरसावन, लग्यो है बरसावन चहुँ ओर से
पहली बार 'सावन' स्वतंत्र तथा दूसरी और तीसरी बार शब्दांश है.
८. फिर तुम तम में मैं प्रियतम में हो जावें द्रुत अंतर्ध्यान
'तम' पहली बार स्वतंत्र, दूसरी बार शब्दांश.
९. यों परदे की इज्जत परदेशी के हाथ बिकानी थी
'परदे' पहली बार स्वतंत्र, दूसरी बार शब्दांश.
१०. घटना घटना ठीक है, अघट न घटना ठीक
घट-घट चकित लख, घट-जुड़ जाना लीक
११. वाम मार्ग अपना रहे, जो उनसे विधि वाम
वाम हस्त पर वाम दल, 'सलिल' वाम परिणाम
वाम = तांत्रिक पंथ, विपरीत, बाँया हाथ, साम्यवादी, उल्टा
१२. नाग चढ़ा जब नाग पर, नाग उठा फुँफकार
नाग नाग को नागता, नाग न मारे हार
नाग = हाथी, पर्वत, सर्प, बादल, पर्वत, लाँघता, जनजाति
अलंकार है श्लेष यह, कहते सुधि सविवेक
किसी काव्य में एक शब्द की एक आवृत्ति में एकाधिक अर्थ होने पर श्लेष अलंकार होता है. श्लेष का अर्थ 'चिपका हुआ' होता है. एक शब्द के साथ एक से अधिक अर्थ संलग्न (चिपके) हों तो वहाँ श्लेष अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून
पानी गए न ऊबरे, मोती मानस चून
इस दोहे में पानी का अर्थ मोती में 'चमक', मनुष्य के संदर्भ में सम्मान, तथा चूने के सन्दर्भ में पानी है.
२. बलिहारी नृप-कूप की, गुण बिन बूँद न देहिं
राजा के साथ गुण का अर्थ सद्गुण तथा कूप के साथ रस्सी है.
३. जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं, यह जानत सब कोइ
गाँठ तथा रस के अर्थ गन्ने तथा मनुष्य के साथ क्रमश: पोर व रस तथा मनोमालिन्य व प्रेम है.
४. विपुल धन, अनेकों रत्न हो साथ लाये
प्रियतम! बतलाओ लाला मेरा कहाँ है?
यहाँ लाल के दो अर्थ मणि तथा संतान हैं.
५. सुबरन को खोजत फिरैं कवि कामी अरु चोर
इस काव्य-पंक्ति में 'सुबरन' का अर्थ क्रमश:सुंदर अक्षर, रूपसी तथा स्वर्ण हैं.
६. जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय
बारे उजियारौ करै, बढ़े अँधेरो होय
इस दोहे में बारे = जलाने पर तथा बचपन में, बढ़े = बुझने पर, बड़ा होने पर
७. लाला ला-ला कह रहे, माखन-मिसरी देख
मैया नेह लुटा रही, अधर हँसी की रेख
लाला = कृष्ण, बेटा तथा मैया - यशोदा, माता (ला-ला = ले आ, यमक)
८. था आदेश विदेश तज, जल्दी से आ देश
खाया या कि सुना गया, जब पाया संदेश
संदेश = खबर, मिठाई (आदेश = देश आ, आज्ञा यमक)
९. बरसकर
बादल-अफसर
थम गये हैं.
बरसकर = पानी गिराकर, डाँटकर
१०. नागिन लहराई, डरे, मुग्ध हुए फिर मौन
नागिन = सर्पिणी, चोटी
उदाहरण:
१. नेता-अफसर राहु-केतु सम ग्रहण देश को आज
यहाँ नेताओं तथा अधिकारियों को राहु-केतु के सामान बताने के कारण उपमा अलंकार है.
२. नयन कमल छवि मन बसी
यहाँ नयन को कमल बताया गया है, अत: रूपक अलंकार है.
अर्थालंकार में चमत्कार उत्पन्न करनेवाले शब्द के स्थान पर समानार्थी शब्द रख दिया जाए तो अर्थ नहीं बदलता तथा अलंकार यथावत बना रहता है.
अर्थालंकार के २ उपभेद हैं: १. गुणसाम्य के आधार पर, २. क्रिया साम्य के आधार पर.
शब्दालंकार
विशिष्ट शब्द-प्रयोगों तथा शब्द-ध्वनियों द्वारा काव्य के कथ्य या वस्तु को अधिक सुरुचिपूर्वक ग्राह्य और संवेद्य बनानेवाले अलंकार शब्दालंकार कहे जाते हैं. कविता में कही गयी बात जितनी आकर्षक होगी पाठक का मन उतना अधिक मोहेगी और वह कहे गये को रुचिपूर्वक ग्रहण कर सकेगा.हम नित्य सोकर उठने के पश्चात स्नानादि कर स्वच्छ वस्त्र पहनकर समाज में जाते हैं तो परिचित सस्नेह मिलते हैं. यासी हम मैले-कुचैले वस्त्रों में जैसे ही चले जाएँ तो न हमें अच्छा लगेगा, न परिचितों को. अपने आपको सुसज्जित कर प्रस्तुत करना ही अलंकृत होना या अलंकार का वरण करना है.
कविता की अंतर्वस्तु को सुसज्जित कर ही अलंकार का प्रयोग करना है. भवन निर्माण के पश्चात वास्तुविद उचित स्थान पर उचित आकर के द्वार, वातायन, मन को अच्छे लगनेवाले रंगों, उपयोगी उपकरणों आदि का प्रयोग कर भावब को अलंकृत करता है. कवि के उपकरण शब्द तथा अर्थ हैं. विचार की अभिव्यक्ति में शब्द का प्रयोग पहले होता है तब पाठक-श्रोता उसे पढ़-सुनकर उसका अर्थ ग्रहण करता है. इसलिए शब्दालंकार को जानना तथा उसका समुचित प्रयोग करना आवश्यक है.
शब्दालंकार के ३ वर्ग हैं: १. आवृत्तिमूलक, २. स्वराघातमूलक तथा ३. चित्रमूलक।
आवृत्तिमूलक शब्दालंकार:
आवृत्तिमूलक शब्दालंकारों के २ उप वर्ग है:१. वर्णावृत्तिमूलक: वे अलंकार जिनमें वर्णों (अक्षरों) की आवृत्ति (दुहराव) होता है. जैसे अनुप्रास अलंकार.
२. शब्दावृत्ति मूलक: वे अलंकार जिनमें शब्दों की आवृत्ति होती है. जैसे यमक अलंकार।
अनुप्रास अलंकार: अनुप्रास अलंकार में एक या अधिक वर्णों की आवृत्ति होती है.
उदाहरण:
१. भगवान भारत भारती का भव्य भूषित भवन हो (भ की आवृत्ति)
२. जय जगजननी-जगतजनक, जय जनगण जय देश (ज की आवृत्ति)
अनुप्रास अलंकार के ५ भेद हैं: १. छेकानुप्रास, २. वृत्यनुप्रास, ३. श्रुत्यनुप्रास, ४. अन्त्यानुप्रास, ५. लाटानुप्रास।
छेकानुप्रास
एक या अधिक वर्ण का, मात्र एक दोहराव'सलिल' छेक-अनुप्रास से, बढ़ता काव्य-प्रभाव
जब एक या एकाधिक वर्णों (अक्षरों) की एक आवृत्ति हो तो वहाँ छेकानुप्रास होता है।
उदाहरण:
१. अनिल अनल भू नभ सलिल, पंचतत्व जग जान।
स्नेह समादर वृद्धि वर, काव्य कलश रस-खान ।।
यहाँ अ, ज, स, व तथा क की एक आवृत्ति दृष्टव्य है।
२. सेवा समय दैव वन दीन्हा। मोर मनोरथ सफल न कीन्हा।।
३. पत्थर पिघले किन्तु तुम्हा तब भी ह्रदय हिलेगा क्या?
४. चेत कर चलना कुमारग में कदम धरना नहीं।
५. निर्मल नभ में देव दिवाकर अग्नि चक्र से फिरते हैं।
६. एक को मारे दो मर जावे तीजा गिरे कुलाटी खाय।
७. ज़ख्म जहरीले को चीरा चाहिए।
काटने को काँच हीरा चाहिए।।
८. मिट्टी का घड़ा
बूँद-बूँद रिसता
लो खाली हुआ।
९. राम गया रावण गया
मरना सच अनिवार्य है
मरने का भय क्यों भला?
१०. मन में मौन
रहे सदा, देखता
कहिए कौन?
टीप: वर्ण की आवृत्ति शब्दारंभ में ही देखी जाती है. शब्द के मध्य या अंत में आवृत्ति नहीं देखी जाती।
उक्त अलंकार का प्रयोग कर अपनी काव्य पंक्तियाँ टिप्पणी में लगायें।
अपने अंचल में प्रचलित भाषा रूप की काव्य पंक्तियाँ जिनमें अलंकार का प्रयोग हो प्रस्तुत करें। विविध छंदों के उदाहरण जिनमें उक्त अलंकार हो, प्रस्तुत करेंआप सभी का धन्यवाद। अलंकारों का प्रयोग कर अपनी काव्य पंक्तियाँ टिप्पणी में लगाएं। अपने अंचल में प्रचलित भाषा रूप की पकंतियाँ जिनमें अलंकार का प्रयोग हो प्रस्तुत करें।
श्रुत्यानुप्रास अलंकार
समस्थान से उच्चरित, वर्णों का उपयोगकरे श्रुत्यानुप्रास में, युग-युग से कवि लोग
वर्णों का उच्चारण विविध स्थानों से किया जाता है. इसी आधार पर वर्णों के निम्न अनुसार वर्ग बनाये गये हैं.
उच्चारण स्थान अक्षर
कंठ अ आ क ख ग घ ङ् ह
तालु इ ई च छ ज झ ञ् य श
मूर्द्धा ऋ ट ठ ड ढ ण र ष
दंत लृ त थ द ध न ल स
ओष्ठ उ ऊ प फ ब भ म
कंठ-तालु ए ऐ
कंठ-ओष्ठ ओ औ
दंत ओष्ठ व
नासिका भी ङ् ञ् ण न म
जब श्रुति अर्थात एक स्थान से उच्चरित कई वर्णों का प्रयोग हो तो वहां श्रुत्यनुप्रास अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. अक्सर आया कपोत गौरैया संग हुलस
यहाँ अ क आ क ग ग ह कंठाक्षरों का प्रयोग किया गया है.
२. इधर ईद चन्दा-छटा झट जग दे उजियार
यहाँ इ ई च छ झ ज ज य तालव्य अक्षरों का प्रयोग किया गया है.
३. ठोंके टिमकी डमरू ढोल विषम जोधा रण बीच चला
यहाँ ठ, ट, ड, ढ, ष, ण मूर्धाक्षरों का प्रयोग किया गया है.
४. तुलसीदास सीदत निसि-दिन देखत तुम्हारि निठुराई
यहाँ त ल स द स स द त न स द न द त त न दन्ताक्षरों का प्रयोग किया गया है.
५. उधर ऊपर पग फैला बैठी भामिनी थक-चूर हो
यहाँ उ ऊ प फ ब भ म ओष्ठाक्षरों का प्रयोग किया गया है.
६. ए ऐनक नहीं तो दो आँख धुंधला देखतीं
यहाँ ए, ऐ कंठव्य-तालव्य अक्षरों का प्रयोग किया गया है.
७. ओजस्वी औलाद न औसर ओट देखती
यहाँ ओ औ औ ओ कंठ-ओष्ठ अक्षरों का प्रयोग किया गया है.
८. वनराज विपुल प्रहार कर वाराह-वध हित व्यथित था
यहाँ व दंत-ओष्टाक्षर का प्रयोग किया गया है.
९. वाङ्गमय भी वाञ्छित, रणनाद ही मत तुम करो
यहाँ ङ् ञ् ण न म नासिकाक्षरों का प्रयोग किया गया है.
अंत्यानुप्रास अलंकार
जब दो या अधिक शब्दों, वाक्यों या छंद के चरणों के अंत में अंतिम दो स्वरों की मध्य के व्यंजन सहित आवृत्ति हो तो वहाँ अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है.छंद के अंतिम चरण में स्वर या व्यंजन की समता को अन्त्यनुप्रास कहा जाता है. इसके कई प्रकार हैं. यथा सर्वान्त्य, समान्तय, विषमान्त्य, समान्त्य-विषमान्त्य तथा सम विषमान्त्य।
अ. सर्वान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार:
सभी चरणों में अंतिम वर्ण समान हो तो सर्वान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है. सामान्यत सवैया में यह अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. धूरि भरे अति सोभित स्यामजू तैसि बनी सिर सुंदर चोटी
खेलत खात फिरैं अँगना पग पैजनिया कटि पीरी कछौटी
वा छवि को रसखान विलोकत वारत काम कलानिधि कोटी
काग के भाग बड़े सजनी हरि हाथ सों लै गयो माखन रोटी (मत्तगयन्द सवैया, ७ भगण २ गुरु, २३ वर्ण)
२. खेलत फाग सुहाग भरी अनुरागहिं कौं झरी कै
मारत कुंकुम केसरि के पिचकारिन मैं रंग को भरि कै
गेरत लाल गुलाल लली मन मोहनि मौज मिटा करि कै
जाट चली रसखानि अली मदमत्त मनौ-मन कों हरि कै (मदिरा सवैया, ७ भगण १ गुरु, २२ वर्ण)
आ. समान्त्य अंत्यानुप्रास अलंकार
सम चरणों अर्थात दूसरे, चौथे छठवें आदि चरणों में अंतिम वर्णों की समता होने पर समान्त्य अंत्यानुप्रास अलंकार होता है. दोहा में इसकी उपस्थिति अनिवार्य होती है.
उदाहरण:
१. जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह प्रवेश त्यौहार
हर अवसर पर दें 'सलिल', पुस्तक ही उपहार
२. मेरी भव-बाधा हरो, राधा नागरि सोइ
जा तन की झांई परै, श्याम हरित दुति होइ
इ. विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार
विषम अर्थात प्रथम, तृतीय, पंचम आदि चरणों के अंत में वर्णों की समता विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार दर्शाती है. यह अलंकार सोरठा, मुक्तक आदि में मिलता है.
उदाहरण:
१. लक्ष्य चूम ले पैर, एक सीध में जो बढ़े कोई न करता बैर, बाँस अगर हो हाथ में
२. आसमान कर रहा है इन्तिज़ार
तुम उड़ो तो हाथ थाम ले बहार
हौसलों के साथ रख चलो कदम
मंजिलों को जीत लो, मिले निखार
ई. समान्त्य-विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार
किसी छंद की एक ही पंक्ति के सम तथा विषम दोनों चरणों में अलग-अलग समानता हो तो समान्त्य-विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है. यह अलंकार किसी-किसी दोहे, सोरठे, मुक्तक तथा चौपाई में हो सकता है.
उदाहरण :
१. कुंद इंदु सम देह, उमारमण करुणा अयन
जाहि दीन पर नेह, करहु कृपा मर्दन मयन
इस सोरठे में विषम चरणों के अंत में देह-नेह तथा सम चरणों के अंत में अयन-मयन में भिन्न-भिन्न अंत्यानुप्रास हैं.
२. कहीं मूसलाधार है, कहीं न्यून बरसात
दस दिश हाहाकार है, गहराती है रात
इस दोहे में विषम चरणों के अंत में 'मूसलाधार है' व 'हाहाकार है' में तथा सम चरणों के अंत में 'बरसात' व 'रात' में भिन्न-भिन्न अन्त्यानुप्रास है.
३. आँख मिलाकर आँख झुकाते आँख झुकाकर आँख उठाते आँख मारकर घायल करते
आँख दिखाकर मौन कराते
इस मुक्तक में 'मिलाकर', 'झुकाकर', 'मारकर' व दिखाकर' में तथा 'झुकाते', उठाते', 'करते' व 'कराते' में भिन्न-भिन्न अन्त्यानुप्रास है.
उ. सम विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार
जब छंद के हर दो-दो चरणों के अन्त्यानुप्रास में समानता तथा पंक्तियों के अन्त्यनुप्रास में भिन्नता हो तो वहां सम विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. जय गिरिजापति दीनदयाला। सदा करात सन्ततं प्रतिपाला ।।
भाल चद्रमा सोहत नीके। कानन कुण्डल नाग फनीके ।।
यहाँ 'दयाला' व 'प्रतिपाला' तथा 'नीके' व 'फनीके' में पंक्तिवार समानता है पर विविध पंक्तियों में भिन्नता है.
अन्त्यानुप्रास के विविध प्रकारों का प्रयोग चलचित्र 'उत्सव' के एक सरस गीत में दृष्टव्य है:
मन क्यों बहका री बहका, आधी रात को
बेला महका री महका, आधी रात को
किस ने बन्सी बजाई, आधी रात को
जिस ने पलकी चुराई, आधी रात को
झांझर झमके सुन झमके, आधी रात को
उसको टोको ना रोको, रोको ना टोको, टोको ना रोको, आधी रात को लाज लागे री लागे, आधी रात को देना सिंदूर क्यों सोऊँ आधी रात को
बात कहते बने क्या, आधी रात को
आँख खोलेगी बात, आधी रात को
हम ने पी चाँदनी, आधी रात को
चाँद आँखों में आया, आधी रात को
रात गुनती रहेगी, आधी बात को
आधी बातों की पीर, आधी रात को
बात पूरी हो कैसे, आधी रात को
रात होती शुरू हैं, आधी रात को
गीतकार : वसंत देव, गायक : आशा भोसले - लता मंगेशकर, संगीतकार : लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, चित्रपट : उत्सव (१९८४)
इस सरस गीत और उस पर हुआ जीवंत अभिनय अविस्मरणीय है.इस गीत में आनुप्रासिक छटा देखते ही बनती है. झांझर झमके सुन झमके, मन क्यों बहका री बहका, बेला महका री महका, रात गुनती रहेगी आदि में छेकानुप्रास मन मोहता है. इस गीत में अन्त्यानुप्रास का प्रयोग हर पंक्ति में हुआ है.
लाटानुप्रास अलंकार
एक शब्द बहुबार हो, किन्तु अर्थ हो एकअन्वय लाट अनुप्रास में, रहे भिन्न सविवेक
जब कोई शब्द दो या अधिक बार एक ही अर्थ में प्रयुक्त हो किन्तु अन्वय भिन्न हो तो वहाँ लाटानुप्रास अलंकार होता है. भिन्न अन्वय से आशय भिन्न शब्द के साथ अथवा समान शब्द के साथ भिन्न प्रकार के प्रयोग से है.
किसी काव्य पद में समान शब्द एकाधिक बार प्रयुक्त हो किन्तु अन्वय करने से भिन्नार्थ की प्रतीति हो तो लाटानुप्रास अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. राम ह्रदय, जाके नहीं विपति, सुमंगल ताहि
राम ह्रदय जाके नहीं, विपति सुमंगल ताहि
जिसके ह्रदय में राम हैं, उसे विपत्ति नहीं होती, सदा शुभ होता है.
जिसके ह्रदय में राम नहीं हैं, उसके लिए शुभ भी विपत्ति बन जाता है.
अन्वय अल्पविराम चिन्ह से इंगित किया गया है.
२. पूत सपूत तो क्यों धन संचै?
पूत कपूत तो क्यों धन संचै??
यहाँ पूत, तो, क्यों, धन तथा संचै शब्दों की एकाधिक आवृत्ति पहली बार सपूत के साथ है तो दूसरी बार कपूत के साथ.
३. सलिल प्रवाहित हो विमल, सलिल निनादित छंद
सलिल पूर्वज चाहते, सलिल तृप्ति आनंद
यहाँ सलिल शब्द का प्रयोग चार भिन्न अन्वयों में द्रष्टव्य है.
४. मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अवतारी थी
यहाँ पहले दोनों तेज शब्दों का अन्वय मिला क्रिया के साथ है किन्तु पहला तेज करण करक में है जबकि दूसरा तेज कर्ता कारक में है. तीसरे तेज का अन्वय अधिकारी शब्द से है.
५. उत्त्तरा के धन रहो तुम उत्त्तरा के पास ही
उत्तरा शब्द का अर्थ दोनों बार समान होने पर भी उसका अन्वय धन और पास के साथ हुआ है.
६. पहनो कान्त! तुम्हीं यह मेरी जयमाला सी वरमाला
यहाँ माला शब्द दो बार समान अर्थ में है,किन्तु अन्वय जय तथा वार के साथ भिन्नार्थ में हुआ है.
७. आदमी हूँ, आदमी से प्यार करता हूँ
चित्रपटीय गीत की इस पंक्ति में आदमी शब्द का दो बार समानार्थ में प्रयोग हुआ है किन्तु अन्वय हूँ तथा से के साथ होने से भिन्नार्थ की प्रतीति कराता है.
८. अदरक में बंदर इधर, ढूँढ रहे हैं स्वाद
स्वाद-स्वाद में हो रहा, उधर मुल्क बर्बाद
अभियंता देवकीनन्दन 'शांत' की दोहा ग़ज़ल के इस शे'र में स्वाद का प्रयोग भिन्न अन्वय में हुआ है.
९. सब का सब से हो भला
सब सदैव निर्भय रहें
सब का मन शतदल खिले.
मेरे इस जनक छंद (तेरह मात्रक त्रिपदी) में सब का ४ बार प्रयोग समान अर्थ तथा भिन्न अन्वय में हुआ है.
टिप्पणी: तुझ पे कुर्बान मेरी जान, मेरी जान!
चित्रपटीय गीत के इस अंश में मेरी जान शब्द युग्म का दो बार प्रयोग हुआ है किन्तु भिन्नार्थ में होने पर भी अन्वय भिन्न न होने के कारण यहाँ लाटानुप्रास अलंकार नहीं है. 'मेरी जान' के दो अर्थ मेरे प्राण, तथा मेरी प्रेमिका होने से यहाँ यमक अलंकार है.
वैणसगाई अलंकार
जब-जब अंतिम शब्द में, प्रथमाक्षर हो मीतवैणसगाई जानिए, काव्य शास्त्र की रीत
जब काव्य पंक्ति का पहला अक्षर अंतिम शब्द में कहीं भी उपस्थित हो वैणसगाई अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. माता भूमि मान
पूजै राण प्रतापसी
पहली पंक्ति में 'म' तथा दूसरी पंक्ति में प' की आवृत्ति दृष्टव्य है,
२. हरि! तुम बिन निस्सार है,
दुनिया दाहक दीन.
दया करो दीदार दो,
मीरा जल बिन मीन. - संजीव
३. हम तेरे साये की खातिर धूप में जलते रहे
हम खड़े राहों में अपने हाथ ही मलते रहे -देवकीनन्दन 'शांत'
४. नीरव प्रशांति का मौन बना बना - जयशंकर प्रसाद
५. सब सुर हों सजीव साकार …
.... तान-तान का हो विस्तार -मैथिली शरण गुप्त
६. पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल -निराला
७. हमने देखा सदन बने हैं
लोगों का अपनापन लेकर - बालकृष्ण शर्मा नवीन
८. जो हृदय की बात है वह आँख से जब बरस जाए - डॉ. रामकुमार वर्मा
९. चौकस खेतिहरों ने पाये ऋद्धि-सिद्धि के आकुल चुंबन -नागार्जुन
१०. तब इसी गतिशील सिंधु-यात्री हेतु -सुमित्रा कुमारी सिन्हा
शब्दावृत्तिमूलक अलंकार
शब्दों की आवृत्ति से, हो प्रभाव जब खासशब्दालंकृत काव्य से, हो अधरों पर हास
जब शब्दों के बार-बार दुहराव से काव्य में चमत्कार उत्पन्न हो तब शब्दावृत्तिमूलक अलंकार होता है. प्रमुख शब्दावृत्ति मूलक अलंकार [ अ] पुनरुक्तप्रकाश, [आ] पुनरुक्तवदाभास, [इ] वीप्सा तथा [ई] यमक हैं. चित्र काव्य अलंकार में शब्दावृत्ति जन्य चमत्कार के साथ-साथ चित्र को देखने से उत्पन्न प्रभाव भी चमत्कार उत्पन्न करता है, इसलिए मूलत: शब्दावृत्तिमूलक होते हुए भी वह विशिष्ट हो जाता है.
पुनरुक्तप्रकाश अलंकार
शब्दों की आवृत्ति हो, निश्चयता के संग
तब पुनरुक्तप्रकाश का, 'सलिल' जम सके रंग
पुनरुक्तप्रकाश अलंकार की विशेषता शब्द की समान अर्थ में एकाधिक आवृत्ति के साथ- की मुखर-प्रबल अभिव्यक्ति है. इसमें शब्द के दोहराव के साथ निश्चयात्मकता का होना अनिवार्य है.
उदाहरण :
१. मधुमास में दास जू बीस बसे, मनमोहन आइहैं, आइहैं, आइहैं
उजरे इन भौननि को सजनी, सुख पुंजन छाइहैं, छाइहैं, छाइहैं
अब तेरी सौं ऐ री! न संक एकंक, विथा सब जाइहैं, जाइहैं, जाइहैं
घनश्याम प्रभा लखि सखियाँ, अँखियाँ सुख पाइहैं, पाइहैं, पाइहैं
यहाँ शब्दों की समान अर्थ में आवृत्ति के साथ कथन की निश्चयात्मकता विशिष्ट है.
२. मधुर-मधुर मेरे दीपक जल
यहाँ 'जल' क्रिया का क्रिया-विशेषण 'मधुर' दो बार आकर क्रिया पर बल देता है.
३. गाँव-गाँव अस होइ अनंदा
४. आतंकवाद को कुचलेंगे, मिलकर कुचलेंगे, सच मानो
हम गद्दारों को पकड़ेंगे, मिलकर पकड़ेंगे, प्रण ठानो
रिश्वतखोरों को जकड़ेंगे, मिलकर जकड़ेंगे, तय जानो
भारत माँ की जय बोलेंगे, जय बोलेंगे, मुट्ठी तानो
५. जय एकलिंग, जय एकलिंग, जय एकलिंग कह टूट पड़े
मानों शिवगण शिव- आज्ञा पा असुरों के दल पर टूट पड़े
६. पानी-पानी कह पौधा-पौधा मुरझा-मुरझा रोता है
बरसो-बरसो मेघा-मेघा धरती का धीरज खोता है
७. मयूंरी मधुबन-मधुबन नाच
८. घुमड़ रहे घन काले-काले, ठंडी-ठंडी चली
९. नारी के प्राणों में ममता बहती रहती, बहती रहती
१०. विरह का जलजात जीवन, विरह का जलजात
११. हम डूब रहे दुःख-सागर में,
अब बाँह प्रभो!धरिए, धरिए!
१२. गुरुदेव जाता है समय रक्षा करो,
१३. बनि बनि बनि बनिता चली, गनि गनि गनि डग देत
१४. आया आया आया, भाँति आया
१५. फिर सूनी-सूनी साँझ हुई
यमक अलंकार
भिन्न अर्थ में शब्द की, हों आवृत्ति अनेकअलंकार है यमक यह, कहते सुधि सविवेक
काव्य पंक्तियों में एक शब्द की एकाधिक आवृत्ति अलग-अलग अर्थों में होने पर यमक अलंकार होता है. यमक अलंकार के अनेक प्रकार होते हैं.
अ. दुहराये गये शब्द के पूर्ण- आधार पर यमक अलंकार के ३ प्रकार १. अभंगपद, २. सभंगपद ३. खंडपद हैं.
आ. दुहराये गये शब्द या शब्दांश के सार्थक या निरर्थक होने के आधार पर यमक अलंकार के ४ भेद १.सार्थक-सार्थक, २. सार्थक-निरर्थक, ३.निरर्थक-सार्थक तथा ४.निरर्थक-निरर्थक होते हैं.
इ. दुहराये गये शब्दों की संख्या अर्थ के आधार पर भी वर्गीकरण किया जा सकता है.
उदाहरण :
१. झलके पद बनजात से, झलके पद बनजात
अहह दई जलजात से, नैननि सें जल जात -राम सहाय
प्रथम पंक्ति में 'झलके' के दो अर्थ 'दिखना' और 'छाला' तथा 'बनजात' के दो अर्थ 'पुष्प' तथा 'वन गमन' हैं. यहाँ अभंगपद यमक अलंकार है.
द्वितीय पंक्ति में 'जलजात' के दो अर्थ 'कमल-पुष्प' और 'अश्रु- पात' हैं. यहाँ सभंग यमक अलंकार है.
२. कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय
या खाये बौराय नर, वा पाये बौराय
कनक = धतूरा, सोना -अभंगपद यमक
३. या मुरली मुरलीधर की, अधरान धरी अधरा न धरैहौं
मुरली = बाँसुरी, मुरलीधर = कृष्ण, मुरली की आवृत्ति -खंडपद यमक
अधरान = पर, अधरा न = अधर में नहीं - सभंगपद यमक
४. मूरति मधुर मनोहर देखी
भयेउ विदेह विदेह विसेखी -अभंगपद यमक, तुलसीदास
विदेह = राजा जनक, देह की सुधि भूला हुआ.
५. कुमोदिनी मानस-मोदिनी कहीं
यहाँ 'मोदिनी' का यमक है. पहला मोदिनी 'कुमोदिनी' शब्द का अंश है, दूसरा स्वतंत्र शब्द (अर्थ प्रसन्नता देने वाली) है.
६. विदारता था तरु कोविदार को
यमक हेतु प्रयुक्त 'विदार' शब्दांश आप में अर्थहीन है किन्तु पहले 'विदारता' तथा बाद में 'कोविदार' प्रयुक्त हुआ है.
७. आयो सखी! सावन, विरह सरसावन, लग्यो है बरसावन चहुँ ओर से
पहली बार 'सावन' स्वतंत्र तथा दूसरी और तीसरी बार शब्दांश है.
८. फिर तुम तम में मैं प्रियतम में हो जावें द्रुत अंतर्ध्यान
'तम' पहली बार स्वतंत्र, दूसरी बार शब्दांश.
९. यों परदे की इज्जत परदेशी के हाथ बिकानी थी
'परदे' पहली बार स्वतंत्र, दूसरी बार शब्दांश.
१०. घटना घटना ठीक है, अघट न घटना ठीक
घट-घट चकित लख, घट-जुड़ जाना लीक
११. वाम मार्ग अपना रहे, जो उनसे विधि वाम
वाम हस्त पर वाम दल, 'सलिल' वाम परिणाम
वाम = तांत्रिक पंथ, विपरीत, बाँया हाथ, साम्यवादी, उल्टा
१२. नाग चढ़ा जब नाग पर, नाग उठा फुँफकार
नाग नाग को नागता, नाग न मारे हार
नाग = हाथी, पर्वत, सर्प, बादल, पर्वत, लाँघता, जनजाति
श्लेष अलंकार
भिन्न अर्थ हों शब्द के, आवृत्ति केवल एकअलंकार है श्लेष यह, कहते सुधि सविवेक
किसी काव्य में एक शब्द की एक आवृत्ति में एकाधिक अर्थ होने पर श्लेष अलंकार होता है. श्लेष का अर्थ 'चिपका हुआ' होता है. एक शब्द के साथ एक से अधिक अर्थ संलग्न (चिपके) हों तो वहाँ श्लेष अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून
पानी गए न ऊबरे, मोती मानस चून
इस दोहे में पानी का अर्थ मोती में 'चमक', मनुष्य के संदर्भ में सम्मान, तथा चूने के सन्दर्भ में पानी है.
२. बलिहारी नृप-कूप की, गुण बिन बूँद न देहिं
राजा के साथ गुण का अर्थ सद्गुण तथा कूप के साथ रस्सी है.
३. जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं, यह जानत सब कोइ
गाँठ तथा रस के अर्थ गन्ने तथा मनुष्य के साथ क्रमश: पोर व रस तथा मनोमालिन्य व प्रेम है.
४. विपुल धन, अनेकों रत्न हो साथ लाये
प्रियतम! बतलाओ लाला मेरा कहाँ है?
यहाँ लाल के दो अर्थ मणि तथा संतान हैं.
५. सुबरन को खोजत फिरैं कवि कामी अरु चोर
इस काव्य-पंक्ति में 'सुबरन' का अर्थ क्रमश:सुंदर अक्षर, रूपसी तथा स्वर्ण हैं.
६. जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय
बारे उजियारौ करै, बढ़े अँधेरो होय
इस दोहे में बारे = जलाने पर तथा बचपन में, बढ़े = बुझने पर, बड़ा होने पर
७. लाला ला-ला कह रहे, माखन-मिसरी देख
मैया नेह लुटा रही, अधर हँसी की रेख
लाला = कृष्ण, बेटा तथा मैया - यशोदा, माता (ला-ला = ले आ, यमक)
८. था आदेश विदेश तज, जल्दी से आ देश
खाया या कि सुना गया, जब पाया संदेश
संदेश = खबर, मिठाई (आदेश = देश आ, आज्ञा यमक)
९. बरसकर
बादल-अफसर
थम गये हैं.
बरसकर = पानी गिराकर, डाँटकर
१०. नागिन लहराई, डरे, मुग्ध हुए फिर मौन
नागिन = सर्पिणी, चोटी